शिष्यों मैं आपका गुरु आपके लिए लाया हूँ कुछ विचार जो मेरे नही पर देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है ।
ये दैनिक भास्कर से लिए गए है । आप भी इस मसले पर विचार कीजिये क्योंकि देश का भविष्य आपके हाथो में है.
दुनिया की बड़ी आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहे भारत के सांसद गुलामों की तरह बाजार में बिकने के लिए तैयार खड़े हैं और सौ करोड़ की आबादी वाले देश को जैसे सन्निपात हो गया या सांप सूंघ गया है। जेलों से मतदान के लिए रिहा किए जाने वाले अपराधी अब तय करने वाले हैं कि मनमोहन सिंह सरकार को कायम रखा जाए या गिरा दिया जाए। एक-एक सांसद और एक-एक वोट इतना कीमती हो गया है कि उसकी कीमत करोड़ों में आंकी जा रही है। समर्थन के बदले जो भी मांग की जा रही है वह पलक झपकते पूरी हो रही है।
जिस लोकसभा को बचाने या भंग करवाने की कोशिशें जारी हैं उसी ने अपने कुछ सदस्यों को इसलिए अयोग्य घोषित कर दिया था कि उन्हें या तो सांसद निधि की राशि में अनियमितता करने का दोषी पाया गया था अथवा उन पर प्रoA पूछने के लिए धन प्राप्त करने के आरोप थे। जनता अब देख रही है कि पूरे कुएं में ही भांग घोली जा रही है और किसी की भी आंखें शर्म से नहीं झुक रही हैं। संविधान निर्माताओं ने जब नागरिकों के मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक सिद्धांतों पर विचार किया होगा तब उन्होंने किसी ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की होगी कि जब चुने हुए प्रतिनिधि ही अपना ईमान गिरवी रख दें, तो जनता को क्या करना चाहिए।
राजनीति शास्त्र के नए अध्याय लिखे जा रहे हैं जिनमें विद्यार्थियों को अब बताया जाएगा कि जो मायावती उत्तरप्रदेश में जिस पार्टी को मनुवादी करार देकर उसकी छाती पर राजनीतिक मूंग दलने का काम कर रही थीं वे ही अब दिल्ली में उसी भाजपा के साथ मिलकर यूपीए सरकार को गिराने की व्यूह रचना में रात-दिन एक कर रही हैं। जो वामपंथी कल तक सोनिया गांधी में देश का नेतृत्व करने की क्षमताएं तलाश रहे थे वे ही आज मायावती को प्रधानमंत्री पद का हाथी तश्तरी में भेंट करना चाहते हैं।
देश के बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों और पूंजीपतियों के लिए रास्ते खुल गए हैं कि पैसे खर्च करके राज्यसभा में भी पहुंचा जा सकता है और ऊंची बोलियां लगाकर लोकसभा में समर्थक भी खरीदे जा सकते हैं। जो प्रयोग दिल्ली में चल रहा है वही आगे चलकर विधानसभाओं में पहुंचेगा और वहां से नगर निगमों, नगर पालिकाओं और पंचायतों तक जाएगा। सुनियोजित भ्रष्टाचार और सत्ता की सस्ती राजनीति के इससे ज्यादा चौंकाने वाले विकेंद्रीकरण की कल्पना नहीं की जा सकती। सटोरिए कयास लगा रहे हैं कि सरकार बचेगी कि जाएगी।
सट्टा बाजार में अब देश का भविष्य तय हो रहा है। उस देश का जिसमें टीमों के कप्तान ही मैच फिक्सिंग मंे जुट हुए हैं। जनता क्या इसी तरह से असहाय होकर राजनीति के हमाम का नंगा दृश्य देखती रहेगी अथवा जो चल रहा है उसके खिलाफ अपने-अपने स्तर पर आवाज उठाना शुरू करेगी? सौ करोड़ की आबादी को पांच सौ-साढ़े पांच सौ लोग इसी प्रकार से बंधक बनाते रहेंगे या फिर कोई परिवर्तन होगा?
जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां आज भारत में कायम हैं, यह तो तय है कि अब किसी एक पार्टी को बहुमत के आधार पर सत्ता प्राप्त नहीं होने वाली है। क्षेत्रीयता भी बढ़ने वाली है और क्षेत्रीय दलों की संख्या और उनकी सौदेबाजी भी। तो क्या अब आंकड़ों का खेल ही सरकारों का भाग्य निर्माता होगा? हमें जो संवैधानिक परंपराएं विरासत में मिली हैं, क्या उन्हीं के सहारे आगे बढ़ना होगा या देश, काल और परिस्थितियों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सरकार चुनने की किसी नई व्यवस्था की न सिर्फ मांग करनी चाहिए, उसके लिए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन भी खड़ा करना होगा।
देश का प्रबुद्ध जनमत अगर पहल करके आगे नहीं आया तो स्थिति बद से बदतर हो जाएगी। यह देशव्यापी चिंता का विषय बनना चाहिए। हम इस दिशा में जितना ज्यादा विलंब करेंगे, हमारे अवसरवादी जनप्रतिनिधि उतने ही निरंकुश होते जाएंगे। यह प्रकट होना जरूरी है कि चुने हुए प्रतिनिधि बिकने के लिए तैयार हो सकते हैं पर जनता को अपनी अवसरवादिता का गुलाम नहीं बना सकते। इसकी शुरुआत तुरंत होना चाहिए। इस दर्द की दवा करना बेहद जरूरी है।